बचपन की यादें....


    दोस्तों ,कुछ बचपन की यादों को आप के साथ साझा करना चाहता हूँ ...मेरा बचपन पैतृक निवास से ज्यादा ननिहाल में बीता था . नानाजी का बाँसफाटक में कुमार औषधालयनाम से दवाखाना चलता था और इकलौते मामाजी का कन्हैया चित्र मंदिर के सामने कृष्णा चश्मालयनामक चश्मे की दूकान.नानाजी तो अब नहीं रहे,मामाजी की दूकान अब भी है . छुट्टियों में बस इन्हीं लोगों के बीच रहता था .नानाजी अम्मा के लिए रिश्ता ढूंढते-ढूंढते शहर से  पन्द्रह किलोमीटर दूर देहात पहुँच गए थे . पापा को देखे,रिश्ता जम गया .उस समय गांव में शहर से आई पहली दुल्हन थीं मेरी अम्मा ,ऐसा दादी से सुना था  .गौने के बाद शहर क दुलहिनदेखने के लिए दूर-दूर से औरतें आती थीं...मुंह देखाई  भी अम्मा बहुत पाई थीं. अब गांव,गांव नहीं रहा..शहर का व्यास बढ़ते-बढ़ते गांवों को भी अपने विस्तार में ले लिया है .
          खैर ,जब मैं पैदा हुआ..बभनौटी में खुशियाँ मनाई गईं.बकैयाँ चलने लगा तो नानाजी अम्मा की बिदाई किये .उस समय का सबसे अच्छा ६ बाई ६ का लकड़ी का पालना(जो आज भी है),बच्चोंवाली साईकिल रिक्शा और ढेर सारे खिलौने..मुझे याद है मुझसे ज्यादा मेरे चाचा लोग उस रिक्शे और पालने का मजा लिए थे .पड़ोस की औरतें मुझे उठा ले जाया करती थीं..एक घर से दूसरा घर ...फिर घंटों बाद ही घर लौटना हो पाता था .यही हाल मेरे रिक्शे का होता था.
          पिताजी मुंबई आये ,तो नानाजी माँ को लिवा लाये.अब बनारस का अपना अलग ही मजा...सवेरे-सवेरे उठ जाते थे .मामा के बच्चे ,मैं,और कभी कभार मौसीजी के बच्चे आ गए तो वे भी .सवेरे नानाजी बोतलबंद दूध ,मक्खन और ब्रेड लाते और हम सब उसका नाश्ता करते.फिर दस बजे उनकी उंगलियां पकड़कर उनका दवाखाना ..सामने ही दीपक सिनेमा के पिछवाड़े की दीवार पड़ती थी..जब कोई गाना बजता तो स्पीकर की आवाज तेज हो जाती...कभी-कभी मामा के साथ उनकी दूकान पर भी बैठता...ये वो समय था जब नई फिल्मों का प्रचार साईकिल रिक्शा से किया जाता था...अस्सी का दशक...फ़िल्मी संगीत का स्वर्णिम दौर.दूकान पर बैठे-बैठे सब देखा करता था.मामा एक चश्में की बिक्री पर अधिकतम दस रुपये का लाभ निर्धारित किये थे...और कभी कोई परिचित आ गया तो पैसा लेने के नाम पर दोनों हाथ जोड़ देते थे...इतना ही नहीं ,सामने मधुर जलपान की दूकान से मीठा मंगाकर आवभगत भी करते थे ...जब वे दोपहर का भोजन करने घर जाते ,उस वक़्त दूकान पर मैं अकेला रहता...और कभी कभार कोई अंग्रेज़ ग्राहक आ गया तो तीस का चश्मा नब्बे-सौ में बेचकर बहुत खुश हुआ करता था...छोटा था...
           नाश्ते के मामले में बनारस का कोई जवाब नहीं .हर दस कदम पर कोई न कोई दूकान आपको मिल ही जायेगी .सुबह कचौड़ी और गर्मागर्म जलेबी,दोपहर में पुरवा की शानदार लस्सी,और रात को दूध ,रबड़ी और मलाई...सब कुछ लाजवाब...मधुर जलपान,क्षीरसागर,कुंजू साव की लज़ीज़ मिठाइयां...अद्वितीय....शाम को छत पर पतंग उड़ाना,पतंगबाजी के दौरान पेंच लड़ाना ...छोटा था तब केवल आसमान में उड़ती हुई पतंगों को टकटकी बांधे देखा करता था या किसी पतंग के कटने का इन्तजार किया करता था...
           बनारस का जिक्र हो और वहाँ के घाटों की चर्चा न हो तो बेमानी होगी...सवेरे-सवेरे देश के कोने-कोने से आये श्रद्धालु और विदेशी पर्यटकों का घाट पर तांता लगा रहता है...सुबह का भक्तिमय वातावरण...और शाम की गंगा आरती....एकदम से सम्मोहित कर देने वाला दृश्य...गंगा आरती के समापन के पश्चात 'हर-हर महादेव शम्भो,काशी विश्वनाथ गंगे'का जब सम्मिलित गायन होने लगता है तब मैंने अपनी आँखों से विदेशियों को भी झूमते हुए देखा है...इस समय तो 'देव दीपावली 'की धूम मची होगी....
           बचपन में फिल्मों का भी बहुत शौक था...शायद अम्मा का असर था ...वह फिल्में बहुत देखती थीं...उनके समय की जितनी भी नायिकाएं थीं,उन सबके स्टाइल की अम्मा की फोटो उनके एल्बम में मौजूद हैं...ब्लैक एंड व्हाइट...स्टुडियो भी बगल में था ,ब्राइट स्टुडियो...
            कन्हैया चित्र मंदिर में अमिताभ की दोस्ताना लगी थी ..मुझे याद है टॉकीज़ को दुल्हन की तरह सजाया गया था.फिल्म जब सिल्वर जुबिली हुई थी तब मनमोहन देसाई और अमिताभ खुद आये थे बनारस... पार्टी में...उस समय दूकान पर बैठे –बैठे अमिताभ को पहली बार देखा था...बड़ी भीड़ थी...वर्षों बाद मुंबई के फिल्मालय स्टूडियो में के.सी.बोकाड़िया के ‘आज का अर्जुन’का मुहूर्त था...मुहूर्त में जाने का मौका मिला था...वहाँ पर बाकायदा नजदीक से अमिताभ,अनुपम खेर,लता मंगेशकर,जयाप्रदा,अमरीश पूरी आदि के दर्शन हुए...
             शहर की तरह गांव की जिंदगी का भी अद्भुत आनंद है...लहलहाते खेतों के बीच से होकर जाते टेढ़े-मेढे कच्चे रास्ते,आम के बगीचे,नालियों से होकर बहता पानी ,महकते तरकारियों से सजे खेत....भुट्टे के खेतों में बाँस की बल्लियों पर खड़े मचान...धान की रोपाई करती मजदूरों की औरतें...पेड़ों के नीचे फ़ैली पीले,पके महुओं की चादर...और भी बहुत कुछ...हरे धनिये की वह खुशबू,ताजे-ताजे पालक,स्वच्छ सफ़ेद मूली जिसे खेतों से उखाडकर हम ऐसे खा जाते थे जैसे गाजर खा रहे हों...बल्कि ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन मूलियों का स्वाद शहर के गाजरों में भी नहीं मिलता...सावन के महीनों में कजरी गाती महिलाओं की टोलियाँ...पेड़ों पर झूलों की कतारें...तीज पर कानों में जरई खोंसकर तालाबों की तरफ बढ़ते लोगों का हुजूम ...क्या-क्या बताएं ?सबकुछ अद्भुत..! ऐसे में याद आता है भोजपुरी फिल्म का वह कालजई गाना जिसे ऐसे मौकों पर गांव की महिलाएं सम्मिलित स्वर में इस तरह गाती थीं कि शरीर रोमांचित हो जाता था...वो आवाजें आज भी कभी-कभी कानों में गूंजती हैं तो मन फिर से उसी मायावी दुनिया में खो जाता है...आज कल के फूहड़ भोजपुरी गानों के अंधड़में लता और उषा द्वारा गाया यह गीत शीतल हवा के झोंकों की तरह है ...आप सुनना चाहेंगे ?









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