सूखे रेत पर....


एक दलदल राह में थी

और हम धँसते गए...
          कौन था जो बुन रहा था
          जाल मेरे वास्ते,
          खूब की कोशिश निकलने की
          मगर फँसते गए...
चाहता था सामने आये न
मेरी राह में पर ,
उसके दरवाजे से होकर
यार सब रस्ते गए...
          थी न कोई चाह मेरी
          ना ही कोई स्वप्न था ,
          ख्वाब को बसने थे
          सूखे रेत पर बसते गए...

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब

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  2. ख्वाब को बसने थे
    सूखे रेत पर बसते गए...

    बहुत खूबसूरत रचना ... सुधीर जी ..

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