मादक छंद वसंत के

    आज वातावरण में चतुर्दिक मादकता बिखर रही है। पृथ्वी के कण-कण से हास और उल्लास फूट पड़ रहा है। मंद-मंद पवन में सुगंध की सुखद हिलोरे उठ रही हैं। मंजरियों का मुकुट पहने अमराइयों में मधुरिमा अंगड़ाइयाँ ले रही है। मदिर गंध से गमकते फूलों के कहकहों और कलियों की सलज्ज मुस्कानसे वन-उपवन रंगीन हो रहे हैं। प्रकृति की रंगशाला आज दुल्हन की तरह सजी हुई है। सजना भी चाहिए उसे। आखिर आज मदनोतत्सव का रस वर्षी पर्व जो ठहरा। वसुधा वधू से मदन महीप का मिलन पर्व। लो! भवरों की शहनाई भी बज उठी और कोयल ने पंचम स्वर में अपना मधुर राग छेड़ दिया है। समस्त चराचर अनंग के रंग में डूब गए हैं। ऋतुराज की पालकी आ रही है। आज अपने समस्त वैभव और अपूर्व साज-शृंगार के साथ प्रकृति रानी उसके स्वागत अभिनंदन के लिए संनद्ध हैं। फिर ऐसे रस-रंग के क्षणों में रसिक शिरोमणि कवि ही क्यों पीछे रहे। कवि श्री अभिराम शर्मा ने ऋतुराज की दिव्य शोभा यात्रा का सुंदर काव्य चित्र प्रस्तुत किया है- 
अमल कटोरन में कमल पिलावै मधु
चंवर डुलावै चारू अवली मरालकी ।
रैन सुख दैन सैन संग चतुरंग लै कै
दैखी ऋतुराज चढ़ि आई आजु पालकी 
 हृदय आनंद प्रेम और माधुर्य से ओत प्रोत हो रहा है। कवि श्री प्रणयेश के शब्दों में-
मिलनि मिलन्दनि की खिलनिकलीन कुंज
हिलनि सुपात झिलमिलनि दिगंत की ।
बोलनि पिकी की उरघोलनि पियूष ऐसी
काम की किलोलनि में डोलनि बसंत की ।।
   बसंतागमन पर रातें रमणीय और दिवस सुखद हो जाते हैं। वसुंधरा रस विभोर हो उठती है। वातावरण में पराग महकने लगता है, अधरों पर राग थिरकने लगता है और हृदय में अनुराग भी मीठा-मीठा दहकने लगता है। कामनियों का तो अंग-अंग कामसे पीड़ित होने लगता है। कवि श्री हरिजूने भी कहा है-
पीरे परिधान पैन्हि पुहुमी परी कौ पैखि
फूलै द्रुम लतिका ललामा भई जाती है ।
रंग-संग डोलत सुगंधित लीन्हें गंध वाह ।
अंग-अंग कामिनी सकामा भई जाती हैं ।।
और कवि तरल के शब्दों में-
लोचनों की अरुणिमा कपोल की लालिमा रूपवती हुई जाती ।
आज वसंत यौवन में पा अभिलाषा नई युवती हुई जाती ।
कवि श्री देव ने तो बसंत को मदन महीप का बालक माना है-
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि प्रातहि जगावे गुलाब चटकारी दै ।
    किंतु कवि श्री करुणेश इसे वसुंधरा और ऋतुराज का मिलन पर्व मानते हैं ।
नहीं फूली समा रही है सरसों
सुषमा है बसंत की छाया हुई ।
सुनते हैं वसुंधरा रानी बनी
ऋतुराज के साथ सगाई हुई ।।
    कवि श्री ललाम मिश्र की कल्पना है कि ऋतुराज अपने पितृ-धर्मका निबहि करते हुए इस शुभ मुहूर्त में पुत्री मेदिनी के हाथों को पीला करता है।
अनुराग की मादक छाई छटा, अलि के मन को नशीला किया ।
तितली बन नाच परी-सी चली, अनुशासन धर्म-का ढीला किया ।
रंग देख पिकी हो विभोर उठी, विधि ने शिखी आँचल गीला किया
ऋतुराज पिता ने बड़े सुख से, जब मेदिनी का कर पीला किया ।
    कोयल भी तो अपनी कुहू-कुहू के द्वारा काम-मंत्र का जाप कर रही है । ऋतुराज के राज्य में योगियों और तपस्वियों तक की समाधियाँ टूट रही हैं तब रसिकों की दशा का कौन वर्णन करे। कविश्याम द्विवेदी के छंद का एक अंश है ।
जोगिन आजु समाधि तजी मन
चंचल श्याम भो संत-महंत को
ऐरी बधूकुल कानि सँवारि लै
शासन है ऋतु राज बसंत को ।
    सारी प्रकृति में सजने-सँवरने की होड़-सी लगी हुई है कवि श्री कुमुदेश बाजपेयी का एक निरीक्षण हैं-
बेसुध बावली देखो धरा वधू
रूप सँवार रही है दिगंत का ।
बल्लरियाँ द्रुमों पै चढ़ के नया
रूप निहार रही है बसंत का ।।
    बसंत के मनोहरी और मादक पर्व पर जिन कामिनियों के कन्त घर पर हैं, उनके हास-विलास का क्या कहना। उनके परिधान और समस्त साज-शृंगार बसंती बने है और वे प्रियतम के साथ बसंत का आनंद लूट रही हैं। कवि श्री ग्वालके छंद की यह बसंती छटा देखें-
सरसों के खेत की बिछावन बसंती बनी
तामें खड़ी चाँदनी बसंती रति कन्त की,
सोने के पलंग पर वसन बसंती सजि
सोन जुही मालै हालै हिय हुरूसंत की ।
ग्वाल कवि प्यारो पुखराजन को प्याला पूरि,
प्यावन पियाको करै बाते विलसंत की
राग में वसंत, बाग-बाग में बसंत, फूल्यो
लाग मैं बसंत क्या बहार है बसंत की ।
   किंतु ऐसे मधुमय समय में जिनके प्रियतम पास नहीं है उनकी पीड़ा तो पहाड़ बन जाती है। जीवन का समस्त उल्लस मरुस्थल की असीमित प्यास में परिवर्तित हो जाता है मिलनके समय सुख और उद्दीपन प्रदान करने वाले प्रकृति के सारे उपादान वियोग में पीड़ादायक बन जाते हैं। विरह में स्वयं काली हुई कोयल वियोगियों को मर्मांतक कष्ट देती है। कवि श्री सनेही की विरहिनी नायिका उसे भी खरी-खोटी सुनाने में नहीं चूकती-
देखि परै हैं अंगारै अंगार न जानिये कौन वनस्थली फूंकी ।
दागि भभूका अनार भये कचनार अनार में धार लहू की ।
हुंकन सो हैं वियोगी दुखी बजमारी लहूँ नहीं ओसर चूकी ।
भाँप हूँ है जरि कारी भई पर कू-कू कसाइन क्वैलिया कूकी ।
    ये कोयलें भी तो इन्हीं वियोगियों और विरहिणीयों के शापों तापों से जलकर काली हुई हैं। कवि श्री श्याम     बिहारी (बिहारी) के अनुसार अभिशाप से मानों वियोगियों के जल के सभी कोयलें काली हुई।
वियोगावस्था में त्रिविधि समीर त्रिशूल की तरह चुभता है। पक्षियों के स्वर हृदय को घायल करते हैं। कवि श्री नूतन ने पलाश के लाल-लाल फलों को देखकर कैसी मार्मिक उक्ति कही है-
फूले न पलास मेरे जान कवि नूतन जी,
विरहिन बिचारिन के जलते कलेजे हैं ।।
     पलाश गुलाब, अनार और कचनार फूल रहे हैं। खेतों में पीली सरसों भी नहीं फूली समा रही है। बन उपवन में कोयलें कूक रही हैं। चारों ओर काम के नगाड़े बज रहे हैं। किंतु प्रियतम परदेश में बसे हैं। दुष्ट बसंत सिर पर आ पहुँचा है अब बेचारी विरहिणी किसका सहारा ले। कवि श्री हरिश्चंद्र के शब्दों में-
हरिश्चंद्र कोयलें कुहुकी फिरै बन बन बाजै लाग्यों फेरिगन काम को नगारो हाये,
क्रूर प्रान प्यारो काको लीजै सहारो अब आयो फेरि सिर पै बसंत बज्र मारो हाय।
  तभी तो कवि श्री पद्माकर की विरह विदग्धा विरहिणी गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं-
ऊधौ यह सूधौ सो संदेसो कहिदो जो भलो,
हरि सो हमारे हयाँ न फूले बन कुंज हैं ।
किंशुक, गुलाब कचनार और अनानर की,
डालन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं ।
    लाल फूल जो दूर दिगंत तक फैले हुए हैं, आप उन्हें पलाश के फूल कहते हैं। जरा किसी विरही से तो पूछ देखिये वह कवि श्री सेनापतिके शब्दों में कहेगा-
आधे अन सुलगि, सुलगि रह आधे मानों विरही दहन काम क्वैला परचाये हैं।
   उधर प्रियतम परदेश जाने के लिए तत्पर हैं और इधर बसंत भी आ रहा है, नायिका इस स्थिति में अपने को कैसे सम्हाल सकेगी। किंतु जाना भी तो टाला नहीं जा सकता। इस पर नायिका कवि श्री वचनेश के शब्दों में प्रियतम से निवेदन करती हैं-
कूकि-कूकि किरचै करेजे में करेगी ताते,
कोयल कसाइन की जीभ निकाराये जाव ।
सौरभ समीर के दुरागम अवरोध हेतु
आँगन पटाये और दरीचिनि मुंदाये जाव ।
आगम बसंत कंत जात हैं दुरंत देश,
मोपै 'बचनैश' एती दया दरसाये जाव ।
लावै न बसंत, औ मनावै न बसंत कोऊ,
गावै न बसंत कोऊ, सबन सिखाये जाव ।
    जिसकी आशंका थी वह वैरी बसंत आ ही पहुँचा। सारी प्रकृति उन्मत्त हो रही है। लगता है मालिन भी बावरी हो गई है, जो विरहिणी के पास आम्र मंजरियाँ ले आई है। कवि श्री सनेही की सारी सहानुभूति नायिका के साथ है-
बौरे बन बागन बिहंग विचरत दौरे,
बौरोसे भ्रमर भीर भ्रमत लखाई है ।
बौरो बन मेरो घर आयो न बसंत हूँ मैं ।
बौरी कर दीन्हीं मोंहि बिरह कसाई है ।
सीख सिखवत बौरी साखियाँ सयानी हुई,
बौरे भये वैद कछु दीन्हीं न दवाई है ।
बौरी भई मालिनी चली है भरि झोरी कहाँ,
बौरो करिवे को औरों बौर यहाँ लाई है ।
    बसंत जहाँ आनंद प्रेम और मधुरिमा का पर्व हैं वहीं इस समय ज्ञान, कला और विद्या की देवी सरस्वती पृथ्वी पर अवतरित होती हैं। अनेक अंचलों में आज भी सरस्वती पूजा की परंपरा पूरी की जाती है। कवि श्री कमलेश ने अपने छंद में इसका संकेत किया है-
पिकी पंचम तान में बोल उठी उठो कष्ठ में रागेश्वरी उतरी ।
कवियों ने, चितेरों ने, गायकों ने समझा महा भागेश्वरी उतरी,
मधुमाते बसन्त के आँगन में हँसती अनुरागेश्वरी उतरी,
अविकंठ से वीना बजाती हुई वनों-बागों में बागेश्वरी उतरी ।
(साभार :- श्याम नारायण वर्मा )

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