भारतीय नारी और रीति-रिवाज़...

   १६ अगस्त को नवभारत टाइम्स में रश्मि शर्मा का लेख रीति-रिवाज़ महिलाओं के लिए ही क्योंपढ़ा.लेख पढकर लगा कि लेखिका की नज़र में भारतीय रीति-रिवाज़ एक बंधन से ज्यादा कुछ नहीं.लेखिका जिस सोसायटी में रहती होंगी या जिन विचारों में पली-बढ़ी होंगी ,हो सकता है वहाँ इन रीति-रिवाजों को बंधन अथवा बकौल लेखिका अतार्किक विधि-विधान समझा जाता हो.पर लेखिका शायद ये बात भूल रही है कि इन्ही रीति-रिवाजों और परम्पराओं से ही भारत देश की पहचान है.भारत में संयुक्त परिवारों में पली-बढ़ी स्त्री स्वेच्छा से इन रीति-रिवाजों का पालन करती है,न कि उनपर किसी प्रकार का दबाव रहता है.ये अलग बात है कि आज महानगरों में एकल परिवारों का चलन ज्यादा होने तथा कामकाजी होने के कारण स्त्रियों के अंदर इन रीति-रिवाजों को लेकर कुछ खास उत्साह नज़र नहीं आता और वे इसे महज़ एक बंधन समझती होंगी.
   व्रत-उपवास,रीति-रिवाज़ और परम्पराओं की वज़ह से ही परिवार की जड़ें मज़बूत होती हैं.पारिवारिक सदस्यों का एक दूसरे से प्रेम बढता है.वर्ना आज स्थिती क्या है?शादियाँ टिक नहीं पा रही हैं,लड़कियां घर से पलायन कर विवाह कर रही हैं,ऑनर किलिंग की घटनाएँ बढ़ रही हैं,परिवार में संस्कारों का बीज नहीं बोया जा रहा है,लड़कियों में भावनाओं का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है.सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे लेखिका के इस प्रश्न पर हो रहा है कि हमारा समाज आज भी महिला को सिन्दूर,बिछुए और मंगलसूत्र में बाँधकर क्यों देखना चाहता है?तथा सुहाग की प्रतीक चीजें पति के लिए क्यों नहीं?’मुझे रश्मिजी बताएँ कि सिन्दूर,बिछुआ,पायल,मंगलसूत्र,बिंदी,चूड़ी के बगैर एक सुहागन स्त्री की पहचान क्या होगी?और उपरोक्त श्रृंगार यदि पति करने लगें तो कैसा लगेगा?भला कौन सुहागिन स्त्री ये नहीं चाहेगी कि उसके हाथ में भरी-भरी चूडियाँ हों,श्रृंगार के विविध साधन हों?इस बात से शायद ही कोई स्त्री इंकार करे कि उन्हें इन तीज-त्योहारों का बेसब्री से इंतजार नहीं होता !

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