सर्व शिक्षा अभियान और आज का विद्यार्थी

   दिनांक १.४.२०१० से बालकों के लिए मुफ्त तथा शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ लागू किया गया है.इस अधिनियम के अंतर्गत कक्षा आठवीं तक के विद्यार्थियों को अब किसी भी प्रकार की बोर्ड की परीक्षा नहीं देनी होगी.इसके बदले अब शिक्षक साल भर विद्यार्थियों का लगातार निरीक्षण करेगा और उनके अंदर छुपी हुई प्रतिभाओं एवं गुणों को पहचानने का प्रयत्न करेगा.इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक बालक में जन्मजात (और कुछ जन्म के पश्चात)गुण एवं प्रतिभाएं होती हैं जो सुसुप्तावस्था में होती हैं.और एक शिक्षक उन प्रतिभाओं से अनजान नहीं रह सकता.लेकिन सुसुप्त गुणों को पहचानकर उसे अगली कक्षा में उत्तीर्ण करने का आधार बनाना कहाँ तक उचित है?
    पहले इसके पीछे के तर्क को समझने की कोशिश करते हैं.पिछले दिनों विद्यार्थियों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति जोर पकडे हुए थी.अब शांति है.हालाँकि इसके लिए मीडिया ज्यादा जिम्मेदार थी.अलग-अलग वजहों से उक्त कृत्य करनेवाले बच्चों को भी मीडिया ने पढ़ाई में असफलता मानकर उसे खबर बनाया.बच्चे आत्महत्या आज भी करते हैं,किसी और कारण से,पर अब खबरों में उसके लिए कोई जगह नहीं है.तो बच्चों की इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का सीधा-सादा हल ये ढूँढा गया कि कक्षा आठवीं तक के बच्चों को फेल न किया जाय.प्रसंगवश 'तारे जमीं पर' आकर जा चुकी थी,जिसका सन्देश ये था कि हर बच्चा स्वभाव और बुद्धि से एक दूसरे से भिन्न होता है.आनन-फानन में हमारे नीति-निर्धारकों ने इस सन्देश को ग्रहण कर लिया और उसी का प्रतिफल है वर्तमान शिक्षा का नया नियम.
    व्यक्तिगत रूप से मेरा ये मानना है कि प्रारंभिक अवस्था में(६ से १४ वर्ष)बच्चों की जो रूचियाँ,गुण या शौक रहती हैं,जरूरी नहीं कि आगे भी वे गुण या शौक कायम रहे.समय,स्थान,उम्र और परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन होते रहते हैं.बचपन में यदि एक बालक अपने डॉक्टर पिता के स्तेथिस्कोप को कानों में लगाकर खेलता है तो बड़ा बनकर वह डॉक्टर ही बनेगा,ये समझना भूल होगी.भारत विश्व के मानचित्र पर चीन के बाद दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है.आने वाले वर्षों में श्रम के क्षेत्र में मानवशक्ति की असीमित आवश्यकता पड़ेगी.ऐसे में जरूरत थी शिक्षा को व्यवसायोंन्मुख बनाने की.एक तो हम पहले ही शिक्षित बेरोजगारों की फौज़ खडी करते आये थे,अब नए नियम से अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ाएंगे.आप स्वयं कल्पना कीजिये,पढ़ाइ में कमजोर बच्चा पहले तो कुछ पढता भी था,अब नया नियम आ जाने से और नहीं पढ़ेगा.दूसरी तरफ एक मेहनती बच्चा अपने बगल में बिना मेहनत के पास होकर आये बच्चे को बैठा देखेगा तो अंततोगत्वा उसका भी मन पढ़ाई से विमुख होगा.परिणामतः कमजोर विद्यार्थियों की संख्या में और इजाफा होगा.
    प्रत्येक विद्यार्थी किसी न किसी विषय में कमजोर होता है.इस कमजोरी को सम्पूर्ण विषयों को  पढ़कर दूर नहीं किया जा सकता.इसके लिए छात्र की कमजोरी का ठीक प्रकार से निदान करना आवश्यक होता है,जिस प्रकार एक डॉक्टर रोग को जानकर उसका इलाज करता है.शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों की कमजोरी को दूर करने के लिए निदानात्मक परीक्षणों का प्रयोग किया जा सकता है.इनका उद्देश्य छात्रों की उन कठिनाइयों को ज्ञात करना है जिनका अनुभव वे अपने पाठ्य-विषय में करते हैं.निदानात्मक परीक्षणों को न जानने से अध्यापक छात्रों की वास्तविक कमजोरी को ज्ञात नहीं कर पाते.फलस्वरूप छात्र अध्यापक द्वारा अधिक लाभान्वित नहीं होते.
    खैर,चूँकि शासनादेश है अतः उसका पालन करना जरूरी है.आने वाले दो-चार वर्षों में इसका गुण-दोष स्वतः परिलक्षित होने लगेगा.फिलहाल इसे सकारात्मक रूप में लेकर कार्य करना ही समय की मांग है.
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        अब आपको लिए चलते हैं एक सरकारी प्राथमिक पाठशाला में.यहाँ पर कुछ उदाहरणों के माध्यम से यह जानने की कोशिश करेंगे कि बच्चों के गिरते शैक्षणिक स्तर और लगातार गिरती संख्या का असल कारण क्या है?जारी...

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