दिल्लगी
राह चलता रहा जज्बात में अंधा होकर,
होश आई जो लगी पैर में कसके ठोकर.
खून देकर मैं सींचता था जिनके सपनों को,
चल दिए वो ही मेरी राह में कांटे बोकर.
न रह पायेंगे हम जिन्दा जो तुमसे दूर हुए,
है कल की बात,कहा करते थे मुझसे रोकर.
जगा करते थे जो रातों को याद में मेरी,
वही अब रात गुजारते हैं चैन से सोकर.
सभी से दिल्लगी करने की अंधी चाहत में,
न की कोशिश,रहे बनके वो एक की होकर.
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