एक दलदल राह में थी
और हम धँसते गए...
कौन था जो बुन रहा था
जाल मेरे वास्ते,
खूब की कोशिश निकलने की
मगर फँसते गए...
चाहता था सामने आये न
मेरी राह में पर ,
उसके दरवाजे से होकर
यार सब रस्ते गए...
थी न कोई चाह मेरी
ना ही कोई स्वप्न था ,
ख्वाब को बसने थे
सूखे रेत पर बसते गए...
सूखे रेत पर....
Reviewed by
*सुधीर दुबे
on
8.11.10
Rating:
5
वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
जवाब देंहटाएंख्वाब को बसने थे
जवाब देंहटाएंसूखे रेत पर बसते गए...
बहुत खूबसूरत रचना ... सुधीर जी ..