तुम बनों हमराज़ मेरी...


जानता  हूँ है बहुत मुश्किल मोहब्बत की डगर,

खींचकर तलवार हाथों में खड़े दुश्मन मगर,

हार जायेंगे जहाँ वाले मुझे विश्वास है जो ,
तुम बनो हमराज़ मेरी,मैं तुम्हारा हमसफ़र.
          जिन्दगी संक्षिप्त है विस्तार पाना चाहता हूँ,
          इस धरा से उस गगन के पार जाना चाहता हूँ,
          है किसे परवाह जो कश्ती नहीं है पास में,
          तैर के दरिया स्वयं उस पार जाना चाहता हूँ.
हौसला तो खूब है,विश्वास है,ताक़त नई,
जब तलक मंजिल न पा लूँगा मुझे राहत नहीं,
विघ्न,बाधा,कंटकों को रास्ते में देखकर,
हारकर मैं बैठ जाऊँगा मेरी आदत नहीं.
          भूल जाएँ आज से जितने भी हैं शिकवे-गिले,
          नाउम्मीदी के बिखर जाने दे सारे सिलसिले,
          फिर सजायें बाग़ की क्यारी नए फूलों से हम,
          देखते हैं स्वप्न जो पाते हैं वे ही मंजिलें.

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