तन्हाई....
वो खुशी के गीत को मातम समझता है II
राह चलता है तो गिरता है,संभलता है ,
अज़नबी चेहरों को लेकर भ्रम सा रहता है II
चाँद की बस्ती में आया चाँदनी का नूर ,
रोशनी कितनी भी हो पर कम समझता है II
नाखूनों से ज़ख्म को करके हरा खुद ही ,
हाथ से अपने स्वयं मरहम सा रखता है II
वैसे तो देखा है पतझड़ भी ,बहारें भी ,
अब उसे बीता हुआ मौसम समझता है II
देखकर तस्वीर अपनी आईने में वो ,
खुद को लाचारी भरा आदम समझता है II
Labels:
कविता
pahla sher bahut khubsurat hai aur dusre bhi kam nahi
जवाब देंहटाएंनाखूनों से ज़ख्म को करके हरा खुद ही ,हाथ से अपने स्वयं मरहम सा रखता है II
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत गज़ल ...
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .