कलियुग..
बच्चे खुद को ढाल रहे I
मम्मी-पापा के बदले अब ,
कुत्ते-बिल्ली पाल रहे II
रहन-सहन रुतबे को लेकर ,
जो रईस कहलाते हैं I
शाम-सवेरे बाग में अपने
‘पप्पी’ को टहलाते हैं II
बुढ़ा बाप दवाखाने तक ,
पैदल चलके जाता है I
प्यारा ‘पप्पी’ साहेब की
गाड़ी में मौज उड़ाता है II
बुढ़ी माँ खटिया पर लेटे ,
खांस-खांस बेज़ार रही I
बहू कटोरा दूध का लेकर
‘पप्पी’ को पुचकार रही II
‘पप्पी’ हुआ बीमार तो बेटा
सेवा में लग जाता है I
माता हुई बीमार तो जैसे
मुश्किल में पड़ जाता है II
जिन बच्चों को पेट काटकर,
पाल-पोसकर बड़ा किये I
खुद के सपने मार दिए ,
उनके सपनों को खड़ा किये II
सेवा की बारी आई तो ,
रिश्ते-नाते तोड़ दिए I
हाथ पकड़कर मात-पिता को ,
‘बृद्धाश्रम’में छोड़ दिए II
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कविता
पूरानी बातों को नए कलेवर में अच्छी प्रकार से प्रस्तुत किया है। बधाई।
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