रिश्तों की बुनियाद...
चढ़ते सूरज को आँखों ने
शाम को ढलते देखा है I
रात गुजरने से पहले ही
शमा पिघलते देखा है II
जो कसमें खाते हैं जीवन
भर का साथ निभाने का ,
उनको हमने बीच सफर में
राह बदलते देखा है II
थकी हुई चाहत का कब तक
बोझ उठाएँ सीने पर ?
यादों के मौसम में अक्सर
छाती जलते देखा है II
प्राणों से प्यारे साथी कब
खून के प्यासे हो जाएँ ,
रिश्तों की बुनियाद जरा सी
बात पे हिलते देखा है II
कुछ तो होगी बात जो मुझसे
मिलने से कतराते हैं ,
बिना आग के कभी किसी ने
धुआं निकलते देखा है ?
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कविता
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