वसंत ऋतु

   वसंत ऋतु राज का स्वागत है!शताब्दियों से भारत के रसिक कवि-मनिषियों के हृदयऋतु-चक्र के प्राण सदृश "वसंत" काभाव-भीने गीतों व पदों सेअभिनंदन करते रहे हैं।प्रकृति षोडशीकल्याणी व सुमधुर रूप लिए अठखेलियाँ दिखलातीकहीं कलिका बन कर मुस्कुराती है तो कहीं आम्र मंजिरी बनी खिल-खिल कर हँसती है और कहीं रसाल ताल तड़ागों में कमलिनी बनी वसंती छटा बिखेरती काले भ्रमर के संग केलि करती जान पड़ती है। वसंत की अनुभूति मानव मन को शृंगार रस में डुबो के ओतप्रोत कर देती है।

भक्त शिरोमणि बाबा सूरदास गाते हैं -
"ऐसो पत्र पठायो नृप वसंत तुम तजहु मानमानिनी तुरंत!
कागद नव दल अंब पातद्वात कमल मसि भंवर-गात!
लेखनी काम के बान-चापलिखि अनंगससि दई छाप!!
मलयानिल पढयो कर विचारबांचें शुक पिकतुम सुनौ नार,
"सूरदास" यों बदत बानतू हरि भज गोपीतज सयान!!
   बसंत ऋतु के छा जाने पर पृथ्वी में नए प्राणों का संचार होता है। ब्रज भूमि में गोपी दलअपने सखा श्री कृष्ण से मिलने उतावला-सा निकल पड़ता है। श्री रसेश्वरी राधा रानी अपने मोहन से ऐसी मधुरिम ऋतु में कब तक नाराज़ रह सकती हैप्रभु की लीला वेनु की तान बनीकदंब के पीलेगोल-गोल फूलों से पराग उड़ती हुईगऊधन को पुचकारती हुईब्रज भूमि को पावन करती हुईस्वर-गंगा लहरी समानजन-जन को पुण्यातिरेक का आनंदानुभव करवाने लगती है।
   ऐसे अवसर परवृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हो उठता है -
"फिर पछतायेगी हो राधा,
कित तेकित हरिकित ये औसरकरत-प्रेम-रस-बाधा!
बहुर गोपल भेख कब धरि हैंकब इन कुंजनबसि हैं!
यह जड़ता तेरे जिये उपजीचतुर नार सुनि हँसी हैं!
रसिक गोपाल सुनत सुख उपज्यें आगमनिगम पुकारै,
"परमानन्द" स्वामी पै आवतको ये नीति विचारै!

   गोपी के ठिठोली भरे वचन सुनराधाजीअपने प्राणेश्वरश्री कृष्ण की और अपने कुमकुम रचित चरण कमल लिएस्वर्ण-नुपूरों को छनकाती हुईं चल पड़ती हैं! वसंत ऋतु पूर्ण काम कला की जीवंत आकृति धरेचंपक के फूल-सी आभा बिखेरती राधा जी के गौर व कोमल अंगों से सुगंधित हो करवृंदावन के निकुंजों में रस प्रवाहित करने लगती है। लाल व नीले कमल के खिले हुये पुष्पों पर काले-काले भँवरे सप्त-सुरों से गुंजार के साथ आनंद व उल्लास की प्रेम-वर्षा करते हुए रसिक जनों के उमंग को चरम सीमा पर ले जाने में सफल होने लगते हैं।
"आई ऋतु चहुँ-दिसिफूले द्रुम-काननकोकिला समूह मिलि गावत वसंत ही,
मधुप गुंजरत मिलत सप्त-सुर भयो है हुलसतन-मन सब जंत ही!
मुदित रसिक जनउमंग भरे हैंनही पावत मन्मथ सुख अंत ही,
"कुंभन-दास" स्वामिनी बेगि चलियह समय मिलि गिरिधर नव कंत ही!"
   गोपियाँ अब अपने प्राण-वल्लभप्रिय सखा गोपाल के संगफागुन ऋतु की मस्ती में डूबी हुईउतावले पग भरती हुईब्रृज की धूलि को पवन करती हुईसघन कुंजों में विहार करती हैं। पर हे देव! श्री कृष्णआखिर हैं कहाँकदंब तलेयमुना किनारेब्रृज की कुंज गलियों में श्याम मिलेंगे या कि फिर वे नंद बाबा के आँगन मेंमाँ यशोदा जी के पवित्र आँचल सेअपना मुख-मंडल पुछवा रहे होंगेकौन जानेब्रृज के प्राणगोपाल इस समय कहाँ छिपे हैं?
"ललन संग खेलन फाग चली!
चोवाचंदनअगस्र्कुमकुमाछिरकत घोख-गली!
ऋतु-वसंत आगम नव-नागरियौवन भार भरी!
देखन चलीलाल गिरधर कौं,
नंद-जु के द्वार खड़ी!!
आवो वसंतबधावौ ब्रृज की नार सखी सिंह पौरठाढे मुरार!
नौतन सारी कसुभिं पहिरि केनवसत अभरन सजिये!
नव नव सुख मोहन संगबिलसतनव-कान्ह पिय भजिये!
चोवाचंदनअगरूकुमकुमाउड़त गुलाल अबीरे!
खेलत फाग भाग बड़ गोपीछिड़कत श्याम शरीरे!
बीना बैन झांझ डफ बाजैमृदंग उपंगन ताल,
"कृष्णदास" प्रभु गिरधर नागररसिक कंुवर गोपाल!
   ऋतु राज वसंत के आगमन सेप्रकृति अपने धर्म व कर्म का निर्वाह करती है। हर वर्ष की तरहयह क्रम अपने पूर्व निर्धारित समय पर असंख्य फूलों के साथनई कोपलों और कोमल सुगंधित पवन के साथ मानव हृदय को सुखानुभूति करवाने लगता है। पेड़ की नर्महरी-हरी पत्तियाँरस भरे पके फलों की प्रतीक्षा में सक्रिय हैं। दिवस कोमल धूप से रंजित गुलाबी आभा बिखेर रहा है तो रात्रिस्वच्छशीतल चाँदनी के आँचल में नदीसरोवर पर चमक उठती है। प्रेमी युगुलों के हृदय पर अब कामदेवअनंग का एकचक्र अधिपत्य स्थापित हो उठा है। वसंत ऋतु से आँदोलित रस प्रवाहवसंत पंचमी का यह भीना-भीनामादकमधुर उत्सवआप सभी के मानस को हर्षोल्लास से पुरित करता हुआ हर वर्ष की तरह सफल रहे यही भारतीय मनीषा का अमर संदेश है -
"आयौ ऋतु-राज साजपंचमी वसंत आज,
मोरे द्रुप अतिअनूपअंब रहे फूली,
बेली पटपीत मालसेत-पीत कुसुम लाल,
उडवत सब श्याम-भामभ्रमर रहे झूली!
रजनी अति भई स्वच्छसरिता सब विमल पच्छ,
उडगन पत अति अकासबरखत रस मूली
बजत आवत उपंगबंसुरी मृदंग चंग,
यह सुख सब " छीत" निरखि इच्छा अनुकूली!!
   बसंत ऋतु हैफाग खेलते नटनागरमनोहर शरीर धारीश्याम सुंदर मुस्कुरा रहे हैं और प्रेम से बावरी बनी गोपियाँउनके अंगों पर बार-बार चंदन मिश्रित गुलाल का छिड़काव कर रही हैं! राधा जी अपने श्याम का मुख तक कर विभोर है। उनका सुहावना मुख मंडल आज गुलाल से रंगे गालों के साथ पूर्ण कमल के विकसित पुष्प-सा सज रहा है। वृंदावन की पुण्य भूमि आज शृंगार-रस के सागर से तृप्त हो रही है।
   प्रकृति नूतन रूप संजोयेप्रसन्न है! सब कुछ नया लग रहा है कालिंदी के किनारे नवीन सृष्टि की रचनासुलभ हुई है
"नवल वसंतनवल वृंदावननवल ही फूले फूल!
नवल ही कान्हानवल सब गोपीनृत्यत एक ही तूल!
नवल ही साखजवाहकुमकुमानवल ही वसन अमूल!
नवल ही छींट बनी केसर कीभेंटत मनमथ शूल!
नवल गुलाल उड़े रंग बांकानवल पवन के झूल!
नवल ही बाजे बाजैं, "श्री भट" कालिंदी के कूल!
नव किशोरनव नगरीनव सब सोंज अरू साज!
नव वृंदावननव कुसुमनव वसंत ऋतु-राज!"(साभार:अभिव्यक्ति )

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1 टिप्पणी:

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