बना रहे बनारस

   मित्रों, शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलते । बनारस भी एक शाश्वत सत्य है, इसीलिये यह बरसों से नहीं बदला । बनारस, खाँटी बनारस । बाहरी बनारस भले बदलता रहे पर ज़रा खड़े होकर देखिये तो चौक, ठठेरी बाज़ार, चौखंबा, गोदौलिया, मनकनका (मर्णिकर्णिका घाट) अस्सी, मैदागिन, मच्छोदरी, पंचगंगा, दशासुमेध (दशाश्वमेध) कितने मुहल्ले, कितनी गलियाँ, सब जस की तस । आप खाँटी बनारसी को विदेश में भी पहचान लेंगे उसकी बोली सुनते ही । उसके उच्चारण में जो बनारसीपन है न - भोजपुरी, काशिका और गंगा के पानी के बीच लहराता झूलता, फट्ट से बता देगा कि ई पक्का बनारसी है। हो सकता है कि कंधे पर गमछा रखे कोई मिल जाय और मुँह में क़रीने से रखे पान से टपकी कोई छोटी-सी बूँद उसके सूट के वैभव को बढ़ा रही हो और हो सकता है कि यह सब न भी हो पर बनारस में जो जी लिया वह तर गया ।
   चलिये शुरुआत करते हैं बनारस के चौक से । चौक हर शहर का एक तरह से दिल होता है । हर शहर में चौक नाम की कोई न कोई जगह होती ही है । पुराने घरों में भी चौक हुआ करता था । छोटा हो, बड़ा हो, घर में चौक होगा ही और शहर में भी । इसी चौक के पूरब पश्चिम हैं बनारस की गलियाँ और उत्तर दक्षिण की ओर मुख्य सड़क जिसमें से गुज़रते समय आपको लहराती बलखाती नदी होना पड़ता है । वरना सावधानी हटी, दुर्घटना घटी । रिक्शे का हैंडिल या हुड, स्कूटर का पहिया, गाय और सांड़ों के सींग या राह चलते किसी का धक्का आपको सुमधुर बनारसी गालियाँ देने के लिये उत्प्रेरित कर सकता है । इसी चौक के पूरवी मुहाने पर है भद्दूमल की कोठी जिसके नीचे और अगल बगल कई बरसों से स्थित है पान सुपाड़ी, इत्र, तेल, फुलेल, अमावट, बड़ी, अचार, नमकीन, नानखटाई और न जाने काहे काहे की दुकानें । यहीं बीच सड़क पर एक से एक आम, लीची, पपीता और जितने भी देशी और आभिजात्य फल हैं सबकी दुकानों के बीच गौ माता और उनके वंशज पगुराते हुए खड़े बैठे मिल जाएँगे । आपको लोकतंत्र का इससे बढ़िया जीवंत उदाहरण कहीं और न मिलेगा ।
   और उसके बाद साड़ियों की दुकानें जिन्हें यहाँ गद्दी कहते हैं । हर बिल्डिंग में साड़ी की गद्दियाँ, नीचे, ऊपर, तीसरी चौथी मंजिल पर, हर जगह । रानीकुआँ से लेकर घुसते जाइये तो नंदन साहू लेन तक । एक एक दुकान का टर्न ओवर लाखों में, पर दुकान देखकर आप ये अंदाज़ नहीं लगा सकते । शाम होते ही ये गलियाँ अधिक गुलज़ार हो जाती हैं । काँख में साड़ी के डिब्बे दबाए कारीगर गद्दियों पर अपना माल दिखाते मिल जाते हैं । इनमें अधिकतर कारीगर मुसलमान हैं । साड़ी के थोक व्यापारी अधिकतर हिंदू । अनेक व्यापारियों के अपने करघे भी चलते हैं । हिंदू मुसलमान के ऐसे अद्भुत मेल-मिलाप की गवाह रोज़ ये गलियाँ बनती हैं ।
   बनारस की गलियों में कितनी ही विभूतियाँ रही हैं । राजा शिव प्रसाद सितारेहिंद और भारतेंदु से लेकर आधुनिक काल तक के अनेक नामचीन कथा लेखकों, कवियों, आलोचकों और निबंधकारों ने बनारस की इन गलियों का मान बढ़ाया है । प्रेमचंद, प्रसाद, शांतिप्रिय व्दिवेदी, हजारी प्रसाद व्दिवेदी, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, त्रिलोचन, विद्यानिवास मिश्र, रामदरश मिश्र, नामवर सिंह, बच्चन सिंह, चंद्रबली सिंह, केदारनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, द्विजेंद्रनाथ मिश्र निर्गुण’, शिवप्रसाद सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा जैसे रचनाकार हों या बाद की पीढ़ी के अजय मिश्र, अमिताभ शंकर रायचौधरी, ज्ञानेंद्रपति, या चंद्रकला त्रिपाठी और अशोक पाठक बनारस ने सबको किसी न किसी रूप में मोहा और घेरा है । बेढब बनारसी, पंडित कांतानाथ पांडेय ‘चोंच’, भैया जी बनारसी और बेधड़क बनारसी जैसे हास्य रस के पुरोधाओं ने भी इन गलियों को सुशोभित किया । इनके साथ ही कलाकारों और संगीतकारों की फ़ेहरिस्त बनाई जाय तो यह संख्या अनगिनत होगी । इनके बिना बनारस और बनारस के बिना ये नाम अधूरे हैं । ये हैं उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ, किशन महाराज, गिरिजा देवी, महादेव मिश्र, राजन साजन मिश्र, गोपीकृष्ण,हरीप्रसाद चौरसिया,पण्डित छन्नू मिश्र.... और ऐसे ही न जाने कितने नाम ।
   चलिये चौक के पश्चिमी की ओर चलें । यहीं है दालमंडी, तमाम वस्तुओं की थोक मंडी । इसी मुहल्ले में रहते थे उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ । पारसी थियेटर के पर्याय आगा हश्र कश्मीरी का संबंध भी इस मोहल्ले से रहा है ।
   अब जब बात बनारस की हो और पान की बात न हो तो सब कुछ अधूरा । बनारस में हर दस बीस कदम पर पान की दुकान मिल ही जाएगी । पान का बीड़ा इतने करीने से लगाया जाता है कि आप इंच टेप लेकर नाप लें सारे एक बराबर । पान भी ऐसे- ऐसे कि मत पूछिये । मगही, देसी, जगन्नाथी और न जाने क्या क्या । बनारस में पान खाते नहीं... जमाते हैं और सारा खेल उसमें कत्थे और चूने का है । पान का बीड़ा बाँधा जाता है चौघड़े में जो महुए के पत्ते का होता है । अलग अलग वैरायटी और अलग अलग खाने वाले । बनारसी पान की शान भी बनारसी लंगड़े आम और बनारसी साड़ी से कुछ कम नहीं । महुए के पत्ते पर एक वस्तु और बिका करती है यहाँ और वह है मक्खन । कभी यहाँ पर भोर के समय इन गलियों में थाली में मक्खन की डली बिका करती थी । जमा हुआ मक्खन भोर की किरणों के उगने के साथ पिघलने लगता था । अब मक्खन मिलता है ब्रांडेड, अमूल या किसी और ब्रांड का, देसी नहीं ।
   दालमंडी का दूसरा सिरा जाकर खुलता है नई सड़क की ओर और सड़क पार करते ही आगे आ जाता है पानदरीबा । पान की थोक मंडी । यहीं दाहिनी तरफ़ प्रसाद जी रहा करते थे और यही पास में बेनिया बाग में प्रेमचंद टहलने आया करते थे ।
   बनारस की गलियों में उत्सवधर्मिता बहुत अधिक दिखती है । दीवाली हो या होली, दुर्गापूजा हो या गणगौर, जैनियों का त्यौहार हो या भरतमिलाप, नक्कटैय्या हो या नागनथैय्या, सब में बनारसी लोग भरपूर उत्साह के साथ भाग लेते हैं । यहाँ का प्रिय नारा है ‘हर हर महादेव’। महादेव बनारसियों के पालक हैं और मित्र भी... तो भइय्या जिस बनारस में सांड़, सीढ़ी और सन्यासी आज भी बहुतायत में मिलते हैं वहीं आपको घाटों पर विश्वविख्यात संगीतकार संगीत प्रस्तुति देते मिल जाएँगे । वहीं किसी कोने में कोई विख्यात और कोई नौसिखुआ चित्रकार दृश्यों को कैनवास पर उकेरता मिलेगा और कोई बावरा अहेरी पागलों की तरह गंगा की लहरे गिनता नज़र आएगा । यों तो सांड़ महाराज शिव के वाहन हैं इसलिए बनारस में उनका विशेष महत्व है पर ख़ास बात यह कि चौक में एक सांड़ महाराज बाकायदा रंगदारी टैक्स वसूलते हैं । ये सांड़ महाराज प्रतिदिन उस इलाके में तमाम दुकानों के आगे खड़े होकर मुँह खोल देते हैं और दुकानदार उनके मुँह में खाद्य सामग्री डाल देता है । यदि किसी ने भूल से भी ख़राब सामग्री डाल दी तो उसकी खैर नहीं । सांड़ महाराज उस दुकान की ऐसी तैसी कर देते हैं । एक अन्य सांड़ जी चौक के पास स्थित गोदौलिया की एक बड़ी सी कपड़े की दुकान के अंदर दुकान खुलते ही आकर बैठ जाते हैं और दुकान निर्बाध चलती रहती है ।
   तो भइय्या चौक से जब भी आप गुज़रें बच बचा के गुज़रियेगा । इस भीड़ में आपकी जेब कटने का डर तो है ही,पर चौक नहीं गए तो क्या देखा बनारस । यहाँ हर आता-जाता व्यक्ति ‘गुरु’ है । दोस्त भी गुरु, अपरिचित भी गुरु, छोटा भी गुरु, बड़ा भी गुरु । इन गुरुओं के बीच आपको भी कोई आवाज़ लगाता मिल सकता है- ‘का हाल बा गुरु’ !

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