आरज़ू
खिड़कियाँ थी बंद ,दरवाजे पे थे ताले पड़े,
कब,कहाँ,किस ओर से ये चाह घर करती रही.
बेखबर था वो हमारे दर्द से और एक मैं,
आंसुओं से अपना दामन तरबतर करती रही.
चाहती थी बोल देना,उससे मन की बात को,
सामने आये तो रख दूं,खोल के हर गाँठ को,
हो न पाई मैं सफल,जो बात कहनी थी मुझे,
कह न पाई उम्र भर,इन्कार से डरती रही.
शाम को छत पर अकेली,हो खड़ी मुंडेर पर,
देखती थी मैं धरा को व्योम से करते मिलन,
है हकीकत और ही कुछ,इससे ज्यादा कुछ नहीं
थी अंधेरी रात उस बस्ती में अंतिम छोर तक,
आस का दीपक जला,चलती रही मैं भोर तक,
दूर थी मंजिल से मैं,और रास्ता वीरान था,
थक चुकी थी फिर भी तनहा तय सफ़र करती रही.
कि,दूर अम्बर से सदा,इस लोक की धरती रही.
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कविता
मैं बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठि।
जवाब देंहटाएंडर कर चुप लगा जाने वाले आगे क्या बढ़ेंगे। प्रेम तो सबसे निडर होता है।
सुन्दर रचना . शुभकामनाएं
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