आस्तीं का सांप...

आदमी पर किस तरह ,
होता है तोहमत का असर I
जल रहा बिन घास के ,
बिन फूस के शीशे का घर II
          भेद फूलों और काँटों में
          न कर पाई ज़रा ,
          दंभ से अंधी हुई
          माली की बेटी इस कदर II
बाग़ की हर शाख पर ,
कांटे ही कांटे थे उगे I
रोप जो मैंने लगाई
थीं लहू से सींचकर II
          आदमी मजबूर हो जाता है
          जब  हालात से ,
          फैसला मंजूर कर लेता है
          आँखें मूंदकर  II
आदमी पर इस तरह ,
होता है तोहमत का असर I
तिनका-तिनका कर बिखर ,
जाता है सपनों का नगर II
और जाते जाते.....
               तोड़कर वादे सभी हंसकर चला गया I
               आस्तीं का सांप था डसकर चला गया II

2 टिप्‍पणियां:

  1. भाव पूर्ण रचना... कभी आना... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com आप का स्वागत है।

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  2. बहुत ही सुन्दर सुधीर जी ....मज़ा आ गया

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