मौत का डर

   मन में आज तीव्र वेदना और छटपटाहट महसूस कर रहा हूं ।
   कहते हैं कि मौत बहुत भयानक होती है। असल में हर व्यक्ति जानता है कि जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु को टाला नहीं जा सकता, लेकिन फिर भी इंसान यह स्वीकार नहीं कर पाता और अंतिम क्षणों तक और जीने की कामना करता है । यही अस्वीकार का भाव मौत के डर को मौत से भी ज्यादा भयानक बना देता है ।
   जीवन के बाद शेष रह जाने वाली चीजें केवल स्मृतियां ही है । राह चलने वाला जैसे अपने पैरों के निशान छोड़ता हुआ चला जाता है, शायद उसी तरह व्यतीत जीवन का लेखा-जोखा इस बात से निर्धारित होता है कि उसने औरों पर क्या और कितना प्रभाव अंकित किया है । हर राहगीर यही सोचता हुआ आगे बढ़ता है कि उसका जीवन दूसरों पर और गहरी छाप छोड़ जाएगा । लेकिन ऐसा कर सकने का भाग्य कितनों को मिलता है ?
   जीवन एक लंबे काल तक चलने वाली यात्रा है । उसकी शुरुआत के सात-आठ वर्ष तक हम स्वयं से भी अनजान,अजनबी रहते हैं । वह अबूझ जीवन माता-पिता, छोटे-बड़े भाई और बहुतेरे सगे-संबंधियों के संपर्क में आता है । पराश्रय के बिना वह शैशव विकसित नहीं हो पाता । फिर भी उन सारे शैशव-संदर्भों की स्मृति हमारे भीतर बहुत कम बची रहती है । फिर शैशव बीत चुका होता है और घर या पाठशाला में अपने हमजोलियों के साथ घूमना-खेलना शुरू हो जाता है । तब के मित्रों की याद मन में अधिक बनी रहती है । लेकिन ये स्मृतियाँ भी तात्कालिक ही होती हैं । विद्यार्थी-जीवन के बाहर आकर जब हम युवावस्था में प्रवेश करते हैं, तब सुकोमल समृतियों से भरपूर होते हुए भी, आगे के सांसारिक झंझटों में कदम रखने पर कितने मित्रों की स्मृति रह पाती है ! महज एक या दो, अधिक हुआ तो दस-बारह ।
   अगली दुनिया एक दूसरी ही दुनिया होती है । जीवन के रंगमंच पर एक न्यारी और अपरिचित मित्रमंडली से हम आ जुड़ते हैं, कुछ लोग हमारे हितैषी और सहायक होते हैं, और कुछ हमें धकियाते हुए चले जाते हैं, लेकिन जीवन में गहरी स्मृति-रेखाएं खींच देने वालों की संख्या सदैव कम होती है । फिर बुढ़ापे में पहुंचने पर पुरानी स्मृतियों का कोष प्रायः चुक जाता है । 

   वृद्धावस्था हमें उन तमाम लोगों से काट देती है, जो कि हमारे समवयस्क नहीं हैं । हमारे सुख या दुख के हिस्सेदार लोगों की संख्या भी उंगली पर गिनने लायक रह जाती है । साठ-सत्तर वर्ष की जीवन-यात्रा में जिन लोगों से हमारी मुलाकात हुई, जिनके साथ हम घूमे,फिरे,खेले, दुनियावी कामों और व्यावहारिकता के क्षेत्र में जिनसे संपर्क जुड़ा और टूटा, उन्हें अगर गिना जाए तो संख्या हजारों में बैठेगी । इस अपरिचित परिचय के बावजूद हम एक छोटा और अज्ञात मनुष्य बनकर दुनिया से कूच कर जाते हैं । कोई भाग्यशाली हो, तो उसके दस-बारह मित्र उसके अंत को याद करके ‘बेचारा ! चल बसा । इस उम्र में मौत के सिवा और क्या होता !’ कहेंगे और एक बूँद आंसू गिरा देंगे, या फिर आंसू बहाये बिना अपनी संवेदना प्रकट कर देंगे ।
   कितनी लंबी यात्रा है यह ! जाने कब शुरू हुई ! जाने कैसे-कैसे काम किए, और उनका फल हासिल किया ! कितना कमाया, कितना छोड़ा ? इस सबका हिसाब लगाया जाए तो सिर्फ घर-बार और कुछ रुपये-पैसे ही अंततः बचे रहते हैं । ‘चला गया न वह ! उसकी मृत्यु से हमारे जीवन में कुछ कमी जैसी आ गई है ।’ लोगों के मन में ऐसा प्रभाव छोड़कर जा सकने का भाग्य कितनों को मिल पाता है ?

1 टिप्पणी:

  1. सुधीरजी,बहुत अच्छा लेख है.मैं आपके ब्लॉग पर अक्सर आती हूँ.आप बनारस से हैं जानकार अच्छा लगा.कृपया मुझे अपने ब्लॉग का सदस्य बना लें.धन्यवाद.

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